साक्ष्यों व तथ्यों के आधार पर दिव्यांगजन अधिनियम 2016 के इस अधिनियम पर शोधकर्ता संविधान के अनुच्छेद 21, 39 ए, मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 व अधिनियम 1995 पर गहरा अध्ययन कर देश के समक्ष वह सत्य प्रस्तुत करना चाहता है। जिसमें दिव्यांगजनों को वह लाभ/अधिकार मिल सकें जिनके लिए सरकार ने अधिनियम 2016 बनाया है। इसके अलावा सरकार को भी पता चल सके कि उक्त अधिनियम में कमियां क्या-क्या हैं? अधिनियम पर दिव्यांगजनों की व्यथा के बिंदुओं पर प्रकाश डालना शोधकर्ता का प्रथम लक्ष्य है। इस अधिनियम की सफलता हेतु आवश्यक है कि दिव्यांगजन आयोग का सम्बन्ध मानवाधिकार आयोग, केन्द्रीय सतर्कता आयोग एवं राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के साथ मित्रता व सौहार्द पूर्ण सम्बन्ध हो। वैसे भी शोधकर्ता के शोध का सार स्पष्ट है कि जिनके कानूनी संरक्षक भारत के मुख्यन्यायाधीश हों उन्हें दिव्यांगजन अधिनियम 2016 का सम्पूर्ण लाभ/अधिकार मिलना अति सरल है।
संकेत शब्द: दिव्यांगजन अधिनियम 2016, मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 व अधिनियम 1995 ,मानवाधिकार आयोग , सतर्कता आयोग
सर्वप्रथम दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 पर एक नज़र : दिव्यांगजनों को विकास की मुख्य धारा में ला कर लाभांवित करना इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य है। जो उनको उनकी सुगमता, व्यापकता, कौशलता, रचनात्मकता व विशेषता की अनुभूति प्राप्त कराता है।
अधिनियम 1995 का आधुनिक स्वरूप : यह विधेयक 21 वर्ष पुराने दिव्यांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण तथा पूर्ण सहभागिता) अधिनियम, 1995 का आधुनिक स्वरूप है। जो मुख्य आयुक्त विकलांगजन तथा राज्य आयुक्त को परिवेदना निवारण (Grievance Redressal), नियामक संस्थाओं की तरह कार्य करेगा। इस पर कानून के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी भी सौंपी गई है।
सरकारी आरक्षण: इसमें दिव्यांगजनों हेतु सरकारी प्रतिष्ठानों में आरक्षण को 3 प्रतिशत से बढ़ाकर मात्र 4 प्रतिशत किया गया है।
परीक्षोपयोगी तथ्य : 40 प्रतिशत या उससे अधिक किसी भी प्रकार की अक्षमता वाले व्यक्तियों को ही दिव्यांग (विकलांग) कहा जाता है। जो सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग के अंतर्गत आता है।
नि:शक्ता घिनौनी चुनौती: साक्ष्यों व तथ्यों के आधार पर शोधकर्ता ने अपने शोध में पाया कि नि:शक्ता अपने-आप में एक विकराल व घिनौनी चुनौती है।जिसके कई प्रकार हैं। जैसे जन्म-जात नि:शक्ता, दुर्घटनावश हुई स्थाई व अस्थायी नि:शक्ता एवं कृत्रिम नि:शक्ता?
मूल्यांकनकर्ताओं के मूल्यांकन का महत्व व निष्ठा: शोधकर्ता ने गहराई से संज्ञान लेते हुए पाया कि इन नि:शक्तों की पीड़ा हरने के लिए सरकार द्वारा बनाए गए विभिन्न नियमों व अधिनियमों पर मूल्यांकनकर्ताओं का मूल्यांकन विशेष महत्व रखता है। जबकि न्यायकर्ताओं का साहस, निष्ठा व क्षेत्र भी अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। चूंकि आयुक्तों व न्यायधीशों ने अक्सर नियमों और अधिनियमों के होते हुए भी इच्छाशक्ति, साहस व निष्ठा के अभाव के कारण निर्णय क्षेत्र का हवाला देते हुए पीड़ित हितकारियों को सम्पूर्ण न्याय से बंचित रखा हुआ है। जो अति दुखद व दुर्भाग्यपूर्ण है।
अल्प दिव्यांगजन आयोग: दुर्भाग्य यह भी है कि 130 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले महान विशाल देश में दिव्यांगजनों के लिए एक अल्प सा दिव्यांगजन आयोग कार्यरत है। जिसमें मात्र आठ-दस कर्मचारियों, तीन-चार अधिकारियों व 2 उप मुख्य आयुक्तों सहित एक मुख्य आयुक्त तैनात किया हुआ है। जिस पर करोड़ों असहाय दिव्यांगजनों के सुनहरे वर्तमान व भविष्य की जिम्मेदारी डाल रखी है। जो वास्तव में हितकारियों के साथ भद्दा मजाक है।
अधिनियम की सफलता हेतु आवश्यक: इसकी सफलता हेतु आवश्यक है कि दिव्यांगजन आयोग का सम्बन्ध मानवाधिकार आयोग, केन्द्रीय सतर्कता आयोग एवं राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के साथ मित्रता व सौहार्दपूर्ण हो। ताकि दिव्यांगजन का न्याय हेतु अलग-अलग प्रयासों में समय व धन व्यय न हो।
निराशाजनक आरक्षण: चूंकि वर्तमान दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 (समान अधिकार अधिनियम 1995 का स्थान लेगा) जिसमें विकलांगता की मात्र सात श्रेणियां ही थीं। जबकि वर्तमान अधिनियम 2016 में विकलांगता की नई-नई श्रेणियों के प्रकाश में आनें के कारण अब सात के स्थान पर इक्कीस (21) प्रकार की अक्षमताओं को इस श्रेणी में डाला गया है। जिससे दिव्यांगजनों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण 03 प्रतिशत से बढ़ाकर मात्र 04 प्रतिशत ही किया गया है। जो ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। जिससे पूर्व दिव्यांगजनों पर घोर हताशा व निराशा छाई हुई है।
व्यवहारिक बिंदु व तथ्य चौंकाने वाले: अध्ययन करने पर शोधकर्ता के समक्ष जो मूल बिंदु उभर कर सामने आए वह अत्यंत चौंकानें वाले हैं। जैसे दिव्यांगजनों के हितों हेतु कार्यान्वयन पर पांच सितारा होटलों में निबंध/लेख/शोध लेखन, महाविद्यालयों में जोनल/राष्ट्रीय समारोहों में मनघड़ंत चर्चाएं, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोगों एवं संगठनों की नकारात्मक कार्रवाई और निष्क्रियता व शोषण, दिव्यांगजनों के लिए मुफ्त सशक्त कानूनी सहायता हेतु बनाई गई अधिनियम 1987 के अंतर्गत राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण नई दिल्ली व उसके अधीनस्थ राज्य स्तर की विधिक सेवा प्राधिकरणों की लक्ष्यहीनता व असफलता और न्यायपालिका की न्यायालयों में भ्रष्ट न्यायाधीशों द्वारा दिव्यांगजनों का मानसिक उत्पीड़न होना शामिल है जो अति निंदनीय व शर्मनाक है।
दिव्यांगजनों की प्रदर्शनी: उल्लेखनीय है कि दिव्यांगजनों को लाभ देने के नाम पर राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन नि:शक्तों के लिए नि:शक्तों की ही प्रदर्शनी लगा कर उनके नाम पर अरबों रुपये व्यर्थ व्यय करते हैं। यानी ईश्वर व विपत्तियों के मारों को नोच-नोच कर आत्महत्या के लिए विवश करते हैं। जिन पर अंकुश लगाना अत्यंत आवश्यक ही नहीं बल्कि मानव धर्म व देश हित में है।
तथ्यों के आधार पर शोधकर्ता का चुनौतीपूर्ण दावा: शोधकर्ता ने चुनौतीपूर्ण बड़ा दावा करते हुए स्पष्ट उल्लेख किया है कि जब तक दिव्यांगजनों पर प्रदर्शनी जैसे उपरोक्त अन्याय नहीं रुकेंगे? तब तक मानव के मूल अधिकारों के लिए संविधान की धारा 21, 39 ए, मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987, (मेंटल हेल्थ एक्ट 1987) राष्ट्रीय विधिक सेवा अधिनियम 1987, दिव्यांगजन सशक्तिकरण एक्ट 1995 व उक्त अधिनियम 2016 कितना भी सशक्त क्यों न हो, सफलता की बुलंदियों को छु नहीं पाएगा?
राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण का दावा झूठा: शोधकर्ता ने अपने शोध में तथ्यों के आधार पर सिद्ध किया है कि नि:शक्तों एवं अन्य गरीब वर्गों को मुफ्त सशक्त न्याय देने का दावा करने वाली "राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण नई दिल्ली व उसकी सहायक राज्य प्राधिकरणों" के दावे खोखले, निराधार व झूठे हैं। शोधकर्ता ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत पीड़ित नि:शक्त द्वारा मांगे गए एक प्रश्न के उत्तर का उल्लेख किया है। जिसके माध्यम से वह समाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय सहित 130 करोड़ की जनसंख्या वाले राष्ट्र को बताने की चेष्टा कर रहा है कि वर्ष 2016 में सितम्बर माह तक राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण 57.97 करोड़ और अपने अधीनस्थ राज्य प्राधिकरणों सहित 200 करोड़ रुपयों से भी अधिक खर्च कर चुकी थी। जबकि वह पीड़ित नि:शक्त द्वारा 26+181=207 पृष्ठों पर मांगी गई कानूनी राय व परामर्श नहीं दे पाए थे। जिसके आधार पर पीड़ित देश के प्रथम व्यक्ति माननीय महामहिम राष्ट्रपति से लिखित "सम्पूर्ण न्याय या इच्छा-मृत्यु" मांग कर निरंतर पूछ रहा है कि वह राष्टीय विधिक प्राधिकरण के संरक्षक भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश से पूछ कर बताएं कि सरकार द्वारा उक्त विशेष समाज पर अरबों रुपए प्रतिवर्ष खर्च करने के बाद भी वह अभिशाप बन कर विधिक सेवाओं के लिए दर-दर क्यों भटक रहा है, क्यों ठोकरें खा रहा है, क्यों भीख मांग रहा है? जिससे देश की "प्रभुता एवं सुंदरता" कलंकित होकर विश्व-हंसी का पात्र बन रही है।
देश के अर्द्धसैनिक बलों पर लागू न होना: शोधकर्ता अपने शोध में सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहता है कि आतंकवाद के इस दौर में जो अर्द्धसैनिक बल अपनी जान की बाजी लगा रहा है वो इस अधिनियम के लाभ से बंचित है। जबकि वह पत्थरबाजों से जूझ कर दिव्यांग हो रहे देश के बहादुर सपूत हैं। उल्लेखनीय दुर्भाग्य यह भी है कि देश के रक्षक पीड़ित सैनिकों की याचिकाऐं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी अपने अधिनियम 10 का हवाला देकर खारिज कर देता है।
पीड़ित कर्मचारियों की व्यथा पर आन रिकार्ड अध्ययन: शोधकर्ता ने सरकारी कर्मचारियों की आन रिकार्ड मनों-वृति पर अध्ययन कर पाया कि उन्हें भ्रष्टाचार या अफसरशाही के विरूद्ध आवाज़ बुलंद करने पर असहनीय मानसिक यातनाएं दी जाती हैं। जिसके कारण उन्हें पागल घोषित कर नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाता है।
अपने अध्ययन में ऐसे कई पात्रों में से एक पात्र की व्यथा प्रमाणिकता के आधार पर इस प्रकार दर्शाई है कि रुह कांप जाती है। जैसे कर्मचारी द्वारा संविधान की कसम खाना: शोधकर्ता ने पाया कि युवा कर्मचारी ने विभागीय आज्ञा अनुसार संविधान की कसम खा कर दिनांक 05-12-1990 में सेवा आरम्भ की थी। उसने अपने विभिन्न अधिकारियों के सारे आदेश माने थे। जिससे उसके तीन वर्ष सकुशल बीत गए थे। मगर ज्वलंत मामला उस समय बन गया जब उसने विभागीय अधिकारियों के भ्रष्टाचार पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए उंगली उठाई।
कार्यालय में मार पिटाई : भ्रष्टाचार को दबाने के लिए कर्मचारी पर मार पिटाई कर उसे मानसिक उत्पीड़ित किया गया था। जिससे वह चिकित्सालय से मनोंचिकित्सालय में पहुंच गया।
विभिन्न प्रकार की उत्पीड़न व स्थानांतरण: शोधकर्ता ने पाया कि पीड़ित बिमार कर्मचारी को उपचार अवस्था में ही संविधान की धारा 21, 39 ए, मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 (मेंटल हेल्थ एक्ट, 1987) और विधिक मुफ्त सशक्त कानूनी सेवा सहायता अधिनियम 1987 के बावजूद विभागीय अधिकारियों ने संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए दिनांक 01-08-1994 को लेह लद्दाख जैसे ऊंचे दुर्गम क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया था।
उच्च क्षेत्र हेतु आयोग्य व सीईई श्रेणी का उल्लंघन: सेना के डाक्टरों ने मेडिकल बोर्ड द्वारा कर्मचारी को ऊंचाई वाले स्थान पर सेवा हेतु अयोग्य घोषित करने के बावजूद उसे वहीं उपस्थित रहने पर विवश किया गया था। उसको विभिन्न प्रकार से पीड़ित-प्रताड़ित व उत्पीड़ित किया गया था। जिसके कारण वह तपेदिक रोग से ग्रसित हो गया था।
झूठे देशद्रोह का आरोप: शोधकर्ता अधिकारियों के गिरते स्तर पर आश्चर्यचकित था कि इसके बावजूद उसके विभागीय उच्च अधिकारियों ने अपनी सोची-समझी अपराधिक साजिशों को छुपाने के लिए उसे मुस्लिम बहुल समुदाय से बात न करने व झूठे देशद्रोह का आरोप लगा दिया था। जो उपरोक्त संविधानिक नियमों व अधिनियमों का खुल्लम-खुल्ला उलंघन था।
माननीय महामहिम राष्ट्रपति के सम्मान पर प्रश्नचिन्ह: अति दुखद व उल्लेखनीय है कि उस अभागे पीड़ित ने राहत व सहायता के लिए राष्ट्रपति जी को एक प्रार्थना-पत्र लिखा। जिस पर उस समय के माननीय महामहिम राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा जी ने तुरंत कार्रवाई करते हुए दिनांक 09-मई-1995 के नम्बर पी1-115508 के तहत भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय को आदेश दिया था कि प्रार्थी को 'कल्याण' दिया जाए। इस आदेश के बावजूद भी पीड़ित प्रार्थी को कोई राहत उपलब्ध नहीं करवाई थी। जो देश व देश के प्रथम व्यक्ति माननीय महामहिम राष्ट्रपति के सम्मान पर आज भी प्रश्नचिन्ह है?
अधिवक्ताओं की उदासीनता व अपराधियों के हाथों बिकना : शोधकर्ता के समक्ष यह तथ्य खुल कर सामने आया कि पीड़ित के अधिवक्ता उसके अपराधियों के हाथों बिक कर अधिवक्ता अधिनियम 1961 का भरपूर उलंघन कर रहे थे। उन्होंने ने पीड़ित से याचिका की फीस लेने के बावजूद उच्च न्यायालय में याचिका तक दायर नहीं की हुई जबकि याचि पर देशद्रोह जैसा कलंकित आरोप था।
विभागीय मैस से खाना बंद करना: तपेदिक रोग प्रमाणित होने के बावजूद राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय दिशा निर्देशों के विरुद्ध विभागीय अधिकारियों द्वारा विभागीय मैस से उसका खाना बंद करना भी उत्पीड़न को दर्शाता है।
जिला जेल में बंद करना: रोटी और न्याय की गुहार लगाने पर घर से कोसों दूर तपेदिक रोगी को जिला जेल में बंद करना भी एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है।
मानवाधिकार आयोग: मानवाधिकार आयोग द्वारा अपने अधिनियम 10 का हवाला देकर उसकी याचिका को रद्द कर उससे किनारा करना भी एक भारी कमी दर्शाता है।
तपेदिक रोधी दवाएं न मिलना: शोधकर्ता ने पाया कि पीड़ित कर्मचारी तपेदिक रोग से ग्रस्त था और केंद्र व राज्य सरकार से तपेदिक रोधी दवाएं लिखित में न मिलने से निराश हो चुका था। चूंकि मीडिया के झूठे विज्ञापनों में तपेदिक रोधी दवाओं की कोई कमी नहीं थी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा भी लिखित इन्कार: शोधकर्ता के हाथ इस संबंध में अंतर्राष्ट्रीय संस्थान रेडक्रॉस व विश्व स्वास्थ्य संगठन के भी दस्तावेज लगे। जिनमें रेडक्रास से मात्र 20 केप्सूल मिलने के प्रमाण मिले और विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिनांक 03-अप्रेल-1997 का पत्र मिला जिसमें डा. थोमस आर फ्रेडण ने पीड़ित की 27 मार्च 1997 के प्रार्थना पत्र के उत्तर में जिला तपेदिक केंद्र का हवाला देते हुए खेद प्रकट कर व्यक्ति विशेष को दवा देने में असमर्थता व्यक्त की हुई है।
न्यायालयों द्वारा भी न्याय न देना: न्यायालयों से भी न्याय लेने में असफल पीड़ित का न्यायधीशों पर से विश्वास उठ जाना भी न्यायालय की गरिमा पर प्रश्नचिन्ह लगता है। चूंकि न्यायाधीश द्वारा न्याय कम और अन्याय अधिक प्रकाश में आ रहा है। पीड़ित को न्याय के स्थान पर दण्ड दे कर हतोत्साहित करना, विभाग द्वारा उसकी नौकरी की बर्खास्तगी पर 10 वर्ष मुकदमा चलाने के बाद भी 'मानसिक विकलांगता पेंशन' दे कर उसके 'पागलपन' पर न्यायालय की मोहर लगाना जैसे असंख्य प्रश्नों को न्याय की कसौटी पर खरा नहीं कहा जा सकता है।
वेतन बंद करना: विभिन्न प्रकार से निरंतर कई वर्षों तक असंवैधानिक तरीके से पीड़ित का वेतन बंद करना भी बहुत बड़ा अपराधिक प्रश्नचिन्ह है।
स्वास्थ्य प्रमाण-पत्र के होते हुए भी: शोधकर्ता के सामने विचित्र तथ्य यह भी आया कि पीड़ित के पास स्वास्थ्य प्रमाण-पत्र होते हुए भी "बिना प्रमाण-पत्र के छुट्टी लिख कर उसकी सर्विस-ब्रेक की हुई है। जैसे (1) EOL (without medical certificate - 25.11.94 to 31.12.94 =37 days. (2) EOL (without medical certificate - 01.04.99 to 20.08.2K = 504 days. इत्यादि इत्यादि स्पष्ट दिखाई देने वाली प्रताड़ना है? इनसे स्पष्ट हो रहा है कि वह आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक व मानसिक पीड़ित-प्रताड़ित व उत्पीड़ित है।
पीड़ित के बुद्धिजीवियों से प्रश्न: उपस्थित विद्वानों, बुद्धिजीवियो, शोधकर्ताओ आप ही मूल्यांकन करो और बताओ कि उक्त केंद्रीय कर्मचारी की सहायता हेतु उपरोक्त कानून एवं उपरोक्त कानूनों के संरक्षक आगे क्यों नहीं आऐ? राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की आदरणीय न्यायालय ने पीड़ित की याचिका दिव्यांगजन आयोग की न्यायालय, केन्द्रीय सतर्कता आयोग की न्यायालय व आदरणीय उच्चतम न्यायालय में न्याय एवं राहत हेतु क्यों नहीं भेजी? इन समस्त आयोगों का आपसी मधुर मित्रतापूर्ण सम्बंध क्यों नहीं है? राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के संरक्षक माननीय उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश उसकी सहायता हेतु संज्ञान लेकर आगे क्यों नहीं आए? क्यों उस पीड़ित तपेदिक रोगी को मनोचिकित्सकों द्वारा मानसिक रोग की दवाई न खाने की सलाह के बावजूद मानसिक उपचार व मानसिक दवाई खाने पर मजबूर किया गया? कैसे उच्च न्यायालय में भी उसे मानसिक रोगी प्रमाणित कर दिया गया था? क्यों उस पीड़ित-प्रताड़ित कर्मचारी को दिव्यांगजन अधिनियम 1995 के बावजूद 18 अगस्त 2000 को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया? क्यों न्यायालय ने बिना विकलांगता प्रमाण-पत्र की जांच किये उसकी 'मानसिक विकलांगता पेंशन' के आदेश पारित कर दिए? इत्यादी-इत्यादी पीड़ित के अनेक प्रश्न सिर उठाकर उत्तर मांग रहे हैं? जिनका शोधकर्ता के पास कोई जवाब नहीं है।
पीड़ित द्वारा दिव्यांगजन न्यायालय में गुहार: प्रमाणिकता के आधार पर इन्हीं प्रश्नों के उत्तरों हेतु पीड़ित दिव्यांगजन आयोग के मुख्य आयुक्त की न्यायालय में गुहार लगा कर उपस्थित हुआ था। जहां तथाकथित विकलांगता प्रमाण-पत्र जारी करने वाले 02 मेडिकल बोर्डों के मनोविशेषज्ञों ने दिव्यांगजन न्यायालय को लिखित ब्यान देते हुए बताया कि उन्होंने उक्त पीड़ित को कभी भी कहीं भी विकलांगता प्रमाण-पत्र जारी ही नहीं किया हुआ।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के मेडिकल बोर्ड द्वारा मानसिक स्वस्थ की घोषणा : विचित्र और अविश्वसनीय कड़वा यथार्थ यह भी है कि दिव्यांगजन आयोग की न्यायालय के मुख्य आयुक्त के आदेश पर पीड़ित को एम्स के मनोविशेषज्ञों के पास मेडिकल बोर्ड हेतु भेजा। जहां मेडिकल बोर्ड के विद्वान विशेषज्ञों ने पीड़ित के सातों (जिसमें पांच पक्ष और दो चुनौतीपूर्ण मेडिकल बोर्डों सहित) मेडिकल बोर्डों की विस्तारपूर्वक जांच करने के बाद दिनांक 26.05.2017 पत्रांक एफ.2-22/मेडिकल बोर्ड/2017-इस्ट(एच) द्वारा प्रमाणित किया की वर्तमान में रोगी किसी भी प्रकार के मानसिक रोग से ग्रसित नहीं है और न ही मानसिक विकलांग है।
मानसिक विकलांगता पेंशन: दुर्भाग्य व विडंबना देखिए कि पीड़ित विकलांगजन आयोग के मुख्य आयुक्त डा. कमलेश पांडे की न्यायालय द्वारा केस नम्बर:6156/1122/2016/आर2242 दिनांक 14.07.2017 को पारित आदेश में पूरी तरह से मानसिक स्वस्थ सिद्ध होने के बाद भी केंद्र सरकार का विभाग पीड़ित कर्मचारी को उसकी नौकरी से बंचित रख कर आज भी "मानसिक विकलांगता पेंशन" दे रहा है। जिसका उदाहरण विश्व में कहीं नहीं है।
जबकि पीड़ित देश के आदरणीय प्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी, माननीय मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा जी और माननीय महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जी को बार-बार अपनी खोई हुई नौकरी को वापस पाने के लिए लिखित परिवेदना निवारण (Grievance Redressal) पर निरंतर आग्रह कर रहा है। वह विनम्रता से पूछ रहा है कि उसे संविधान के अंतर्गत न्याय क्यों नहीं दिया जा रहा?
निष्पक्ष निष्कर्ष = शोधकर्ता का निष्पक्ष निष्कर्ष यह है कि नि:शक्तों के भाग्य का लाभ कृत्रिम व अनि:शक्त उठा रहे हैं।
जय हिंद जय हिंद
जय जय जय हिंद
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लेखक : इंदु भूषण बाली ( पत्रकार व समाजसेवक )
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी ,
घर नंबर एक वार्ड नंबर तीन, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जिला जम्मु जेके पिनकोड 181202
दूरभाष : +917889843859, +918803205166
E- mail: baliindubhushan@gmail.com
सुस्वाग्तम सम्मानणीयों
ReplyDeleteहार्दिक सादर आभार सम्मानणीय
जय हिंद जय हिंद
जय जय जय हिंद