प्रगतिशील और लोकतांत्रिक उपभोक्ता नियमों के साथ भारत के विकास को आगे बढ़ाने के लिए मंच तैयार करना उपभोक्ता भागीदारी के साथ प्रगतिशील सुधार मांग को पूरा करने की अहम कुंजी है
राष्ट्रीय : भारत के अग्रणी मीडिया दि इकनोमिक टाइम्स ने अपने दूसरे कंज्यूमर फ्रीडम कॉनक्लेव (https://youtu.be/amqn5udgNJA) का आयोजन किया। यह एक पावर पैक्ड थॉट लीडरशिप प्लैटफॉर्म था जहां भारत के लिए प्रगतिशील कानून और उपभोक्ता के फायदे / पसंद उन्मुख नियामक संरचना बनाने की आवश्यकता पर चर्चा और बहस हुई।
‘फ्रीडम ऑफ कंजमप्शन - रीराइटिंग कंसट्रेन्ट्स’ थीम पर आधारित उच्च प्रभाव वाले सत्र में भिन्न उद्योगों के कॉरपोरेट और शिक्षा क्षेत्र के जाने-माने प्रमुखलोगों ने उपभोक्ता आजादी के भिन्न पहलुओं पर गहराई से विचार किया। यह आर्थिक आजादी स्थापित करने, प्रगतिशील देशों द्वारा लागू की गई नीतियों पर विचार करने और महामारी के बाद के विश्व में इसकी बढ़ती प्रासंगिकता के आलोक में किया गया।
अधिवक्ता और सांसद (लोकसभा), मनीष तिवारी ने मुख्य भाषण दिया। उन्होंने एक महत्वपूर्ण बिन्दु से सत्र की शुरुआत की। यह बिन्दु था, “खराब नीतिगत निर्णयों से भारत की पूरी आर्थिक व्यवस्था को नुकसान हुआ है। कोविड-19 के कारण उपभोग के पैटर्न में भारी बदलाव आया है। कोविड-19 महामारी के कारण लोगों को यह जानने का मौका मिला कि व्यक्ति के रूप में हम कौन हैं और एक संतोषजनक तथा भरा-पूरा संपूर्ण जीवन जीने के लिए हमारी आवश्यकता कितनी है।”
कुछ अन्य प्रमुख वक्ताओं में शामिल हैं - सुप्रतिम चक्रवर्ती (खेतान एंड कंपनी), वेदिका मित्तल (विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी), प्रोफेसर पीटर हैजेक (वोल्फसन इंस्टीट्यूट ऑप प्रीवेंटिव मेडिसिन), राजेश रामकृष्णन
(परफेट्टी वैन मेल्ले), आशुतोष मनोहर (टेट्रा पैक इंडिया), डेविड टी. स्विनॉर जे.डी (ओट्टावा विश्वविद्यालय), केनेथ वार्नर (मिशिगन विश्वविद्यालय) और डॉ. टी सुचारिता (AHRER)।
चर्चा का एक प्रमुख मुद्दा यह था कि भारतीय उपभोक्ता को यह योग्यता दी जाए कि वे जानकार निर्णय ले सकें – यह अध्ययन किए हुए तथ्यों और डाटा से समर्थित हो – सुरक्षित विकल्प हो और नुकसान कम हो (कई मामलों में उपयोग के परिणामस्वरूप)। इसलिए, फिर से जांचना महत्वपूर्ण है और मुक्त बाजार में उत्पादों का नियमन करने की बजाय उन पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय करने वाले नियम-कानून के सामाजिक आर्थिक प्रभाव पर दीर्घकालिक नजरिया अपनाया जाना चाहिए।
भारत जब धीरे-धीरे पटरी पर आ रहा है तो खरीदारों का एक मजबूत बाजार विकसित करना और उपभोक्ता के लिए ‘संभावनाओं’ को रेखांकित करना महत्वपूर्ण है। खपत बढ़ने और बंद पड़ी मांग प्रगतिशील नियमनों तथा जनता की भागीदारी तथा दिशानिर्देशों में व्यवस्थित परिवर्तन से शुरू हो सकती है क्योंकि उपभोक्ता की आजादी विकल्पों का उपयोग करने का आधार है।
मुख्य मुद्दा है - क्या भारत अपनी नियामक बाधाओं से निजात पा सकता है और एक ऐसा ढांचा तैयार कर सकता है जो उपभोक्ता व्यवहार के बदलते उदाहरणों से तालमेल में आगे बढ़े?
इस विषय पर अपने विचार रखते हुए सुप्रतिम चक्रवर्ती, पार्टनर, खेतान एंड कंपनी (कॉरपोरेट / कमर्शियल, टेक / डाटा प्रोटेक्शन), ने कहा, “नए जमाने में कानून बनाने के चार स्तंभ है: पूर्व-नियमन, परीक्षण और मूल्यांकन, नियामक रुख तथा कानून पर पुनर्विचार। आधुनिक समय के कानून का मसौदा तैयार करते वक्त ऐक्टिव रेगुलेशन, रेगुलेट्री सैंड बॉक्सिंग, परिणाम आधारित नियमन, जोखिम आधारित नियमन और गठजोड़ वाले नियमन पर विचार किया जाना चाहिए। यह जरूरी है कि पुराने कानूनों को समकालीन प्रवृत्तियों तथा उपभोक्ताओं के अनुकूल बनाया जाए। कानून निर्माताओं को सही अर्थों में इस बात पर विचार करना चाहिए कि उपभोक्ता के लिए क्या फायदेमंद है और इसके साथ ही उद्योग के लिए कारोबारी चुनौतियों को भी उसी के अनुरूप दूर करना चाहिए।”
‘नियमन’ के मुकाबले संपूर्ण प्रतिबंध का चुनाव करने से संबंधित एक और महत्वपूर्ण पहलू, कई मामलों में बेहद उल्टा उत्पादक है और यह उपभोक्ता की आजादी को बाधित करता है। इस पर वेदिका मित्तल, सीनियर रेजीडेंट फेलो तथा कंपीटिशन लॉ की लीडर, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी ने कहा, “सबसे बड़ी गड़बड़ी यह है कि भारत में नियमनों के मामले में सबके लिए एक कानून का नजरिया है। अगर हम चाहते हैं कि हमारे नियामक ढांचे को और वैज्ञानिक तथा सबूत आधारित बनाया जाए तो हमें नए सिरे से पहिए का आविष्कार करने की जरूरत नहीं है – वैश्विक सर्वश्रेष्ठ व्यवहारों की नकल करने से सही दिशा में छलांग लगाने में मदद मिल सकती है। कानून बनाने में जनता की भागीदारी सक्रिय करना और हितधारकों से ज्यादा सलाह करना भी महत्वपूर्ण है। लंबे समय में एक वाजिब और प्रतिस्पर्धी बाजार से फायदा होगा और बेहतर कानून उपभोक्ता का आत्मविश्वास बढ़ाएगा।”
प्रोफेसर पीटर हैजेक, डायरेक्टर ऑफ हेल्थ एंड लाइफस्टाइल रिसर्च यूनिट, वोल्फसन इंस्टीट्यूट ऑफ प्रीवेंटिव मेडिसिन, क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन ने दिलचस्प टिप्पणी की, “यह सही है कि कई बार उपभोक्ता जोखिम वाले व्यवहार करते हैं और जोखिम बनाम पसंद का आकलन किया जाना चाहिए। इसमें जन स्वास्थ्य के हित का टकराव अक्सर जनता की नैतिकता से हो सकता है। हालांकि, व्यावहारिक रुख अपनाना आवश्यक है। भिन्न उद्योगों में नुकसान कम करने के लिए सुरक्षित विकल्प अपनाए जा रहे हैं; उपभोक्ताओं के विचार के लिए कम डरावने विकल्पों को आजमाने का प्रयास किया जाना चाहिए। भ्रमित नियमन और सख्त नीतियां लोगों को सुरक्षित उत्पादों का रुख करने के बजाय लगातार नुकसानदेह खपत की ओर ले जा रही हैं।”
राजेश रामकृष्णन, एमडी, परफेट्टी वैन मेल्ले ने अपनी बात रखते हुए कहा, “खरीदारों और विक्रेताओं के बीच के अंतर को भरना और उन्हें सोच-समझकर विकल्प चुनने देना ही उपभोक्ताओं की आजादी है। इसे संभव करने के चार तरीके हैं; उत्पाद की गुणवत्ता और मानक सुनिश्चित करना, उपभोक्ता को सक्रियता से सुनना; सुनिश्चित करना कि ब्रांड उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं के अनुसार बेहतर करें और इसके लिए उन्हें विकल्पों की पेशकश करें ताकि वे सही निर्णय कर सकें (शुगर फ्री या विटामिन प्रेरित वैरिएंट में)। उपभोक्ताओं, ब्रांड और सरकार के बीच तीन-तरफा साझेदारी की जरूरत है।”
महामारी के बाद का उपभोक्ता बहुत सतर्क और जागरूक है तथा वह जिम्मेदार विकल्पों से जुड़ा हुआ है। इस पर अपनी बात रखते हुए आशुतोष मनोहर - एमडी, टेट्रा पैक इंडिया ने कहा, “महामारी के बाद संक्रमण के बढ़े हुए जोखिमों के मद्देनजर उपभोक्ता डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की ओर आकर्षित हो रहे हैं क्योंकि उनमें निरंतरता और नियमन है। इससे खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होती है तथा कैलोरी आदि से संबंधित आवश्यक सूचनाएं लेबल पर होती हैं जिससे उपभोक्ता जानकार निर्णय ले सकते हैं। अलग से एक उत्पाद और उससे संबंधित संगठन होता है जो पर्यावरण की दृष्टि से जिम्मेदार होता है स्थायी होता है – नुकसान और अपशिष्ट प्रबंध करता है – यह आज के उपभोक्ता की जरूरत है। किसी भी सामान का उसी या दूसरे रूप में दोबारा उपयोग किया (रीसाइकिलिंग) जाना एक बड़ा अंतर बन गया है। डिजाइन से लेकर निपटान तक पूरी मूल्य श्रृंखला में इसकी व्यवस्था होनी चाहिए जो संबंधित उद्योग की बड़ी निरंतरता प्राथमिकताओं में शामिल होता है। मौजूदा व्यवस्था में रीसाइकिलिंग को अनौपचारिक क्षेत्र के साथ एकीकृत और सुदृढ़ करने से वास्तविक अंतर लायाजा सकता है जो इसे बड़े स्तर पर आगे ले जाएगा।”
उपभोक्ताओं को स्वास्थ्य से संबंधित जानकार निर्णय लेने की शक्ति देने की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए और तर्कसंगत तथा वाजिब रुख अपनाने की वकालत करते हुए डेविड टी. स्विनॉर जे.डी, चेयर ऑफ दि एडवाइजरी बोर्ड, सेंटर फॉर हेल्थ लॉ, पॉलिसी एंड एथिक्स, ओट्टावा विश्वविद्यालय के एडजंक्ट प्रोफेसर, फैकल्टी ऑफ लॉ, यूनिवर्सिटी ऑफ ओट्टावा जोर देकर कहते हैं, “प्रतिबंध सबसे खराब किस्म का नियमन है और कई बार यह नियमन को छोड़ देना होता है। अमेरिका में शराब पर प्रतिबंध पूरी तरह नाकाम रहा था और इससे देशों और श्रेणियों को कई सीख मिलती है। दुर्भाग्य से प्रतिबंधात्मक नीतियां अब शराब से लेकर तंबाकू तक पर लागू की जा रही हैं जिसकी शुरुआत तंबाकू-विरोधी संगठनों द्वारा की जा रही है और उनकी फंडिंग खासतौर से एलएमआईसी में की जा रही है ताकि नीतियों को प्रभावित किया जा सके। सरकार को दबाव से सहयोग की ओर बढ़ना चाहिए, लोगों का विरोध करने की बजाय उनके साथ काम करना चाहिए – सफलता पाने के लिए हमें कम जोखिम वाले विकल्पों की सूचना से उनका सशक्तिकरण करना चाहिए और उन्हें सुरक्षित विकल्प मुहैया करवाना चाहिए। उदाहरण के लिए, हम धूम्रपान करने वाले वयस्कों का स्वास्थ्य सिर्फ डिलीवरी चैनल बदलकर बदल सकते हैं। सुरक्षित समाधान मुहैया करवाकर रोकथाम करने वाले सिगरेट कारोबार का बचाव कर रहे हैं और उपभोक्ताओं को उनके अधिकार से वंचित कर रहे हैं क्योंकि वे धूम्रपान छोड़ नहीं पा रहे हैं।”
केनेथ वार्नर, प्रोफेसर एमेरिटस ऑफ हेल्थ मैनेजमेंट एंड पॉलिसी, डीन एमेरिटस ऑफ पब्लिक हेल्थ, स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ, मिशिगन विश्वविद्यालय ने कहा, “विज्ञान तंबाकू का नुकसान कम करने वाले उत्पादों के फायदे बताता है। इससे उन लोगों को सहायता मिलती है जो धूम्रपान छोड़ नहीं पाते हैं। इसके बावजूद कई कंपनियां रोकथाम वाला तरीका अपना रही हैं और इन उत्पादों को प्रतिबंधित कर रही हैं जो विज्ञान के खिलाफ आदर्शों पर आधारित है। हमें ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जो सबूत के आधार पर उत्पादों को मान्यता दें कि यह कम नुकसानदेह हैं, और फिर इन उत्पादों को उपलब्ध कराया जाए। इसके बावजूद पहुंच को सिर्फ वयस्क उपयोगकर्ताओं के लिए सीमित किया जाना चाहिए। इसके लिए सख्त नियम, आयु निर्धारण, कराधान आदि शामिल है।”
डॉ. टी सुचारिता, एमडी इस समय डिपार्टमेंट ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन एंड रिसर्च में प्रोफेसर हैं और टैगोर मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल चेन्नई में रिसर्च को-ऑर्डिनेटर हैं तथा एसोसिएशन फॉर हार्म रिडक्शन एजुकेशन एंड रिसर्च की संस्थापक निदेशक हैं, ने कहा, “भारत जैसे बड़े देश के लिए मुश्किल कमी, पहुंच और खर्च उठा पाने की स्थिति में होने के संबंध में स्वास्थ्य साक्षरता महत्वपूर्ण है तभी वयस्क उपभोक्ताओं की निर्भरता को सफलतापूर्वक कम किया जा सकता है। हम ऊर्जा क्षेत्र जैसा करने के बारे में सोच सकते थे। इसने स्वच्छ ऊर्जा तैयार की है। इसी तरह, स्वच्छ निकोटिन समाधान तैयार करने के बारे में सोचिए - खासकर एशिया के लिए जहां 60% से ज्यादा धूम्रपान करने वाले रहते हैं। अमेरिका, स्वीडन, जापान की सीख को हमने सुरक्षित विकल्प के रूप में अपनाया है। ऐसे में भारत के लिए नीति संरचना तैयार करते समय सुरक्षित विकल्पों को अपना जाना चाहिए।”
ईटी एज के विषय में :-
टाइम्स स्ट्रैटेजिक सोल्यूशंस लिमिटेड, ईटी एज ब्रांड नाम के तहत काम करता है। यह इकनोमिक टाइम्स की एक पहल है। इसकी स्थापना कई सारे उद्योगों तथा उनके वर्गों के सशक्तिकरण के लिए की गई है। इसके लिए महत्वपूर्ण कारोबारी जानकारी रणनीतिक कॉन्फ्रेंस तथा समिट के जरिए साझा की जाती है। भारतीय कारोबारी क्षेत्र के लिए काम करते हुए ईटी एज दूरदर्शियों और प्रमुख अग्रणी लोगों को अपने ज्ञान मंच पर एकजुट करने के लिए काम करता है और सामाजिक तथा कारोबारी पारिस्थितिकी तैयार करता है जो उद्योग के लिए आवश्यक सकारात्मक बदलाव के अनुकूल होता है। इस पहल का मुख्य मकसद दुनिया भर की कारोबारी जानकारी को समिट और कॉन्फ्रेंस के जरिए सही उपयोग के लायक बनाना है। यह सब व्याख्यान, कार्यशालाओं, पैनल, गोल मेज सम्मेलन और भिन्न मामलों के अध्ययन के जरिए किया जाता है। ये फोरम सुनिश्चित करते हैं कि निर्णय लेने वाले वरिष्ठ जन आवश्यक सूचनाओं नेटवर्क से लैस हों ताकि उन चुनौतियों का जवाब दे सकें जिनका सामना वे न सिर्फ भारत में करते हैं बल्कि वैश्विक स्तर पर भी करते हैं। इसे 2013 में शुरू किया गया था और देसी कॉन्फ्रेंस के जरिए इसने अपनी जगह बनाई है। अब इसने नए फॉर्मेट में कदम रखा है और न सिर्फ ज्ञान साझा करने वाले मंच कवर करता है बल्कि प्रदर्शनी, समुदाय का निर्माण करने जैसे काम के साथ भौतिक व डिजिटल क्षेत्रों में भी काम करता है।
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