कर्म छिपाये न छिपे
यदि व्यक्ति छिपकर , अकेले में बुरे कर्म करता है और सोचता है कि उसे कोई नही देख रहा , तो यह उसका भ्रम है । उन कर्मों की रिकार्डिंग संस्कार रूप में उसकी आत्मा में स्वतः होती जाती है । इस प्रकार वह स्वयं कर्ता और स्वयं ही अपनी करनी का गवाह बन जाता है । ये संस्कार ही उसके आगे के जीवन में उसकी उन्नति वा अवनति , लाभ वा हानि , प्रेम वा नफरत आदि को आकर्षित करते है । भगवान से भी कोई कुछ छिपा नही सकता । कर्मों के दो निरीक्षक सदा हमारे साथ है -- एक मन स्वयं और दूसरा परमात्मा , इसलिए कभी भी बुरा कर्म ना करें ।
जब हम कोई कर्म करते है तो उसके भी दो पहलू है -- एक है प्रत्यक्ष पहलू और दूसरा है उस कर्म के समय की मन की भावना , जो अप्रत्यक्ष होती है । मान लिजिए , हमने किसी व्यक्ति को किमती खिलौना दिया । खिलौना प्रत्यक्ष है परन्तु खिलौना देते समय मन की भावना कैसी थी ? अहंकार की थी , दया की थी , दिखावे की थी , मान-इज्जत की थी या नेकी कर दरिया में डाल -- इस प्रकार की थी ? खिलौना तो नश्वर है लेकिन उसको आधार बनाकर हमारी भावनाएँ निर्मित हुई वह सदा हमारे साथ रहेगी । एक ओर ईश्वर के प्रति श्रध्दा रहे और दूसरी ओर ईश्वर के बच्चों के प्रति गलत भाव रखें , किसी को कटु वचन कहे , किसी का हक मारकर स्वयं को मोटा बनाए , ऐसा व्यक्ति कष्ट पायेगा ही । ईश्वरीय शक्ति उस व्यक्ति की कोई सहायता नही कर सकती । इसलिए अपने कर्मों के निर्णायक स्वतः बनो । कर्म फल से पहले कर्म रूपी बीज पर ध्यान दो ।
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