फिल्म समीक्षा - 2 स्टार
कोरोना महामारी के कारण विगत दो वर्षों में लोगों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। इस महामारी से लोगों की सोच में भी परिवर्तन आया। निर्माता निर्देशक संजय सूरे ने इसी आपदा से मध्यमवर्गीय परिवार पर आने वाली मुसीबत और सोच को दर्शाती फिल्म 'ब्लेस यू' का निर्माण किया है। रशियन शार्ट फिल्म और कोरोना महामारी पर आधारित यह फिल्म एक मध्यमवर्गीय परिवार की दशा का वर्णन करता है। मंत्रालय में क्लर्क की नौकरी करने वाले सदानंद मुरकुटे (मनीष कुमार) कोरोना काल में महामारी से बचाव के जो दिशानिर्देश सरकार ने जारी किये थे उसका बेहद संजीदगी से पालन करता है। उसकी पत्नी सरिता (अंकिता गुसाईं) टिफिन सर्विस करती है। उनके दो बच्चे एक ही फोन पर बारी बारी पढ़ाई करते हैं। क्योंकि बच्चों को लॉकडाउन के समय ऑनलाइन पढ़ाई करवाई जाती थी। सभी का मास्क पहनना अनिवार्य और छींक या खांसी होने पर उसे कोरोना ही मान लिया जाता था।
ऐसे परिस्थिति में फ्री वाउचर मिलने पर पूरा परिवार शॉपिंग करने जाता है फिर बच्चों की जिद पर सभी गोला भी खाते हैं। गोला खाते समय सदानन्द को छींक आती है और वह अनजाने में कमिश्नर अर्थात आयुक्त (मोहनीश कल्याण) की गाड़ी पर छींक मार देता है। उसे लगता है कि छींक के कारण यदि कमिश्नर को कोरोना हो गया तो वह उसे दोषी समझकर उसकी शिकायत कर नौकरी से निकलवा देगा। सदानंद को डर सताने लगता है कि उसकी नौकरी चली गयी तो उसके परिवार का क्या होगा और इस सोच के कारण उसे पश्चाताप होता है और वह कमिश्नर के पास जा जा कर बार बार माफी मांगता है। लेकिन कमिश्नर उसकी बात सुनने को तैयार ही नहीं होता। अपना पक्ष रखने के लिए और कमिश्नर से माफी मांगने के लिए सदानंद क्या क्या प्रायोजन करता है यही फिल्म का मुख्य बिंदु है। इस फिल्म में भ्रष्टाचार को भी उजागर किया है।
फिल्म में मुम्बई और मध्यमवर्गीय परिवार का जो दृश्य है वह वास्तविकता को दर्शाता है। सभी रंगमंच के कलाकार हैं तो उनका अभिनय भी अच्छा है। लेकिन फिल्म की कथा को जिस प्रकार पिरोया गया है उसमें कमियां महसूस होती है। फिल्म कम बजट की है लेकिन यदि फिल्म को और छोटा बनाया जाता तो वो ज्यादा अच्छा लगता। कुछ दृश्य में लॉजिक की कमी लगती है जैसे कमिश्नर शिकायत ना कर दे यह सोच कर सदानंद उससे माफी मांगता रहता है इसके लिए उसका एक माह तक ऑफिस ना जाना क्या उसकी नौकरी जाने का खतरा नहीं बनेगा। दूसरा जब कमिश्नर उसे पहचानता ही नहीं तो वह उसकी शिकायत कैसे करेगा। माफी मांगने के लिए वह कई वेश बदलता है जैसे कभी किन्नर, कभी कॉलगर्ल, कभी योग टीचर, कभी भिखारी। क्या इस तरह रूप बदल कर कोई साधारण इंसान माफी मांगता है? फिल्म को व्यंग्यात्मक बनाने का प्रयास किया गया है, लेकिन हँसी के जगह सिर्फ मुस्कान आती है। फिल्म के पटकथा में कसावट की कमी है। गाने ठीक ठाक हैं। संवाद में भी नयापन नहीं है, कुछ पंच लाइन अच्छे हैं।
करेज प्रस्तुत 'ब्लेस यू' पूरी तरह से एक व्यंग्यात्मक फिल्म है। इसके पहले भाग में रोचकता है लेकिन दूसरा भाग ढीला ढाला है। फिल्मोत्सव में यह फिल्म सराही जा चुकी है और पुरस्कृत भी हुई है।
फिल्म को केवल दो स्टार मिलता है वह भी कलाकारों की मेहनत और मुम्बई की बारीकियों को दिखाने के लिए।
- गायत्री साहू
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